बीजाण्ड की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए/Describe the structure of the ovule pictorially.
नमस्कार दोस्तों आज की इस पोस्ट में हम जानेंगे बीजाण्ड की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।, लघुबीजाणु जनन किसे कहते हैं?,गुरु बीजाणु धानी किसे कहते हैं?,लघुबीजाणुधानी और गुरुबीजाणुधानी में अंतर, द्विनिषेचन या दोहरा निषेचन क्या है इसका महत्व लिखिए, स्वपरागण और पर परागण में अंतर लिखिए।, परागण किसे कहते हैं परागण के प्रकारों का विस्तार से वर्णन कीजिए। क्योंकि यह परीक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है इसलिए आप इस पोस्ट को पूरा जरूर पढ़ें धन्यवाद।
बीजाण्ड की संरचना का सचित्र वर्णन
बीजाण्ड की संरचना (Structure of Ovule):– बीजाण्ड को गुरु बीजाणु धानी भी कहते हैं, क्योंकि इसी के अंदर मादा युग्मक (Female gametophyte) या गुरु बीजाणु (Mega-spores) स्थित होता है। बीजाण्ड अंडाशय की दीवार से एक अं
डण्ठल अथवा वृनत द्वारा जुड़ा रहता है इसे बीजाण्डवृन्त (Funicle) कहते हैं। बीजाण्ड जिस स्थान पर बीजाण्ड के शरीर से जुड़ा रहता है वह स्थान नाभिका (Hilum) कहलाता है। बीजाण्ड का मुख्य भाग बीजाण्डकाय (Nucellus) कहलाता है। यह भाग पतली भित्ति वाली कोशिकाओं से निर्मित होती है, एक व्दिस्तरीय झिल्ली से गिरा रहता है, जिसकी बाहरी स्तर बाह्य आवरण (Outer integument) और भीतरी स्तर अन्तःआवरण (Inner integument) कहलाती है। कुछ बीजाण्डों में यह आवरण केवल एक ही स्तर का बना होता है। आवरण या अध्यावरण बीजाण्डों के बीजाण्डकाय को पूरा नहीं ढँकते बल्कि इनका कुछ भाग खुल ही रह जाता है, इस स्थान को बीजाण्डव्दार (Micropyle) कहते हैं। बीजाण्ड का आधारीय भाग जहाँ से अध्यावरण निकलते हैं, निभाग (Chalaza) कहलाता है। बीजाण्डव्दार के पास एक कोष पाया जाता है जिसे भ्रूणकोष (Embryo sac) कहते हैं, यही पौधों का मादा युग्मक होता है जिसमें 6 कोशिकाएं पाई जाती हैं उनकी तीन कोशिकाएं बीजाण्डद्वार के पास स्थित होती है जिसमें से एक बड़ी कोशिका अंडाणु (Egg) तथा शेष दो कोशिकाएं सहायक कोशिकाएं (Synergids) कहलाती हैं। इसकी तीन कोशिकाएं निभाग की तरफ स्थित होती हैं, जिन्हें प्रतिमुख (Antipodal) कोशिकाएं कहते हैं। भ्रूण कोष के मध्य में दो केंद्रकों के मिलने से बना एक केंद्रक पाया जाता है जिसे द्वितीय केंद्रक (Secondary nucleus) कहते हैं। यह केंद्रक निषेचन के बाद भ्रूण के लिए भोज्य पदार्थ का निर्माण करता है निषेचन के बाद अंडाणु भ्रूण, बीजाण्ड-बीज तथा अंडाशय फल का निर्माण करता है।
लघुबीजाणु जनन किसे कहते हैं?
उत्तर:– इनका विकास परागकोष के चारों कोनों विकसित पर होता है लघु बीजाणु धानी चारों ओर से बाह्य त्वचा, अंतः स्तर ,मध्य स्तर तथा टैपीटम से घिरी होती है अनेक लघु बीजाणु मातृ कोशिकाओं से अर्धसूत्रीविभाजन द्वारा असंख्य के लघु बीजाणु (परागकण) बनते हैं।
गुरु बीजाणु धानी किसे कहते हैं?
उत्तर:– गुरुबीजाणुधानी कुछ परजीवी अन्य जीवों के शरीरों में अलग-अलग प्रकार से बीजाणु डाल देते हैं जो उन बीजों के भीतर विकसित होते हैं गुरु बीजाणु मातृ कोशिका से गुरु बीजाणु के निर्माण की प्रक्रिया को गुरुबीजाणुजनन कहते हैं।
लघुबीजाणुधानी और गुरुबीजाणुधानी में अंतर
प्रश्न:- द्विनिषेचन या दोहरा निषेचन क्या है इसका महत्व लिखिए
उत्तर– द्विनिषेचन:– पुष्पीय पादप में संलयन क्रिया में तीन केंद्रक होते है एक युग्मक तथा दो ध्रुविय केन्द्रक। अत: प्रत्येक भ्रूणकोष में दो संलयन, युग्मक – संलयन तथा त्रिसंलयन होने की क्रिया विधि को दोहरा निषेचन कहते है।
द्विनिषेचन का महत्व:–
(1). यह आवृत्तबीजयों की पहचान का प्रमुख लक्षण है।
(2). आवृत्तबीजी पौधों में इसी निषेचन के कारण त्रिगुणित भ्रूणपोष (एण्डोस्पर्म) का निर्माण होता है जो इसकी प्रमुख विशेषता है।
(3). आवृत्तबीजियों में भ्रूण के बनने पर ही भ्रूणपोष का निर्माण होता है।
(4). भ्रूणपोष में दोनों जनकों के लक्षण पाए जाते हैं इससे संकर ओज में वृद्धि होती है।
(5). इसमें निषेचन के कारण जैवक्षम्य बीजों का निर्माण होता है।
स्वपरागण और पर परागण में अंतर लिखिए।
उत्तर :- स्वपरागण और पर परागण में अंतर निम्नलिखित है-
प्रश्न :-परागण किसे कहते हैं परागण के प्रकारों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:- परागण की परिभाषा:- " पुंकेसर के परागकोष से परागकणों का उसी पुष्प या दूसरे पौधे के किसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर जाना परागण(Pollination) कहलाता है।"
परागण के प्रकार :- परागण के प्रकार निम्नलिखित हैं-
(1) स्वपरागण(Self pollination)
(2) पर- परागण(Cross pollination)
प्रश्न :- स्वपरागण किसे कहते हैं स्वपरागण के प्रकार ,लाभ और हानियाँ लिखिए।
उत्तर:-
स्वपरागण की परिभाषा :- "जब एक ही पुष्प के परागकण उसी पुष्प के पौधे या दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र पर स्थानांतरित होते हैं तो उसे स्वपरागण(Self pollination) कहते हैं।" स्वपरागण के होने के लिए यह अनिवार्य है कि पौधा व्दिलिंगी हो अर्थात एक ही पौधे पर दोनों लिंगों के प्रजननांग बनते हों।
स्वपरागण के प्रकार(Types of Self pollination) :- स्वपरागण के प्रकार निम्नलिखित हैं-
(1) ऑटोगेमी(Autogamy):- जब किसी पुष्प के पुंकेसर के परागकोष से परागकण उसी के वर्तिकाग्र को परागित करते हैं तब उसे ऑटोगेमी कहते हैं।
उदाहरण:- गेहूँ, मटर, धान आदि।
(2)जीटोनोगेमी(Geitonogamy):- जब किसी पुष्प के पुंकेसर के परागकोष से परागकण उसी पौधे पर लगे किसी अन्य पुष्प की वर्तिका को परागित करते हैं तो इसे जीटोनोगेमी कहते हैं।
स्वपरागण लाभ(Advantages of self-pollination):- स्वपरागण के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) परागकणों की अधिक मात्रा में आवश्यकता नहीं
होती है।
(2) स्व-परागण की क्रिया सहज व सुलभ होती है।
(3) स्वपरागण से बने बीज शुध्द नस्ल वाले होते हैं।
(4) पुष्पों को रंग ,सुगंध तथा मकरंद स्त्राव करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
(5) जिन पुष्पों में पर-परागण नहीं होता है वहाँ पर स्वपरागण द्वारा निषेचन होता है।
स्वपरागण की हानियाँ(Disadvantages of self -pollination):- स्वपरागण की हानियाँ निम्नलिखित हैं-
(1)स्व-परागित पुष्पों में बीज संख्या में कम , हल्के व छोटे होते हैं।
(2) स्वपरागण के बाद उत्पन्न पौधों में अच्छे स्वस्थ
पौधों के गुणों का सम्मिश्रण नहीं हो पाता है
(3) स्वपरागण से उत्पन्न पौधे नए गुण उत्पन्न नहीं करते हैं
(4) इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है
(5) इस परागण से उत्पन्न पौधों में केवल एक ही पौधे के गुण होते हैं।
प्रश्न :- पर- परागण किसे कहते हैं पर- परागण के लाभ और हानियाँ लिखिए।
उत्तर :- पर- परागण की परिभाषा:- जब परागकण किसी दूसरे पौधे पर स्थित पुष्प के वर्तिकाग्र पर स्थानांतरित हो( चाहे वह उसी प्रजाति या अन्य प्रजाति का हो) तो इस परागण को पर- परागण अथवा पर निषेचन(Allogamy) कहते हैं।
पर परागण के लाभ:- पर- परागण के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) पर परागण से नयी जातियों का प्रादुर्भाव होता है।
(2) पर परागण से उत्पन्न बीजों से बने पौधे सुंदर ,मजबूत व स्वस्थ होते हैं।
(3) बीज संख्या में अधिक बनते हैं।
(4) बालियाँ व फल अधिक बनते हैं।
(5) विकास एवं अनुकूलन की संभावना बढ़ती है।
(6) इन की रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है।
पर- परागण की हानियाँ :- पर परागण की हानियाँ निम्नलिखित हैं-
(1) पर परागण के लिए पादपों को माध्यमों, जैसे- वायु, जल तथा पौधों आदि पर निर्भर रहना पड़ता है अतः यह परागण निश्चित नहीं होता है।
(2) इसके लिए अधिक परागकणों की आवश्यकता पड़ती है
(3) इस परागण से पौधों की शुद्धता पूर्णता समाप्त हो जाती है
(4) पुष्पों को आकर्षक बनाने के लिए, जिससे जंतु इन पर आकर्षित होकर आयें और परागण में मदद करें, पौधों को अनेक उपाय करने पड़ते देते हैं।
प्रश्न :- स्वपरागण और पर परागण में अंतर लिखिए।
उत्तर :- स्वपरागण और पर परागण में अंतर निम्नलिखित है-