डार्विनवाद का सिद्धांत क्या है?/ DarvinWad Ka Sidhhant kya hai
प्रश्न :- डार्विन का प्राकृतिक वरण सिद्धांत या डार्विनवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:- डार्विन का प्राकृतिक वरण सिद्धांत :- एल्फ्रेड रासैल वैलेस व चार्ल्स रॉवर्ट डार्विन ने समान रूप से जीवन की उत्पत्ति के संदर्भ में एक निष्कर्ष निकाला और परिकल्पना प्रस्तुत की जिसे डार्विनवाद कहते हैं।
डार्विन ने ब्रिटिश सरकार के विश्व सर्वेक्षण जहाज "H.M.S बीगल " पर प्रकृति वैज्ञानिक के रूप में पाँच वर्ष तक यात्रा की यात्रा के दौरान अण्टार्क महासागरों का कुछ अध्ययन किया और फिर इसके बाद दक्षिण पैसविक महासागर के दक्षिणी अमेरिका के निकट स्थित " गैलापैगोस द्वीप " पर गये। और वहाँ की परिस्थिति का अध्ययन किया वहाँ पर उन्होंने जिओस्पिजिडी कुल के 20 जातियाँ देखी।
डार्विनवाद:- डार्विन की विचारधारा यह थी कि प्रकृति जंतु व पौधों का इस प्रकार चयन करती है कि वह जीव जो उस वातावरण में रहने के लिए सबसे अधिक अनुकूल होते हैं संरक्षित हो जाते हैं और वह जीव जो कम अनुकूलित होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं।
प्राकृतिक चयनवाद(Natural selection) को समझाने के लिए अपने विचार को निम्नलिखित में प्रस्तुत किया-
(1) जीवो की संख्या में बढ़ जाने की प्रवृत्ति:- सभी जीवो में यह प्रवृत्ति होती है कि वे जन्म द्वारा अपनी संख्या में अधिक से अधिक वृद्धि करें, लेकिन उनसे उत्पन्न जीव जीवित नहीं रह पाते। क्योंकि उनकी वृद्धि ज्यामितीय अनुपात में होती है परंतु खाने व रहने का स्थान स्थिर होता है।
(2) सीमान्त कारक(Limiting factor):- प्रत्येक विद्यार्थी को रोकने के लिए कुछ वाहक होते हैं जिससे उसकी संख्या सीमित हो जाती है कुछ महत्वपूर्ण सीमांत कारक निम्न है-
1. सीमित भोज्य सामग्री:- जनसंख्या भोज्य सामग्री के कारण सीमित हो जाती है अगर भोज्य सामग्री कम है तो है तो वह जनसंख्या बढ़ नहीं सकती।
2. परभक्षी जन्तु:- परभक्षी जंतु जनसंख्या पर अंकुश लगाते हैं जैसे अफ्रीरिका की जंगलों से शेर को खत्म कर दिया जाए तो जैवरा की संख्या कुछ समय तक इतनी बढ़ जाएगी जब तक कि सीमित भोज्य सामग्री व रोग उसके लिए वादक न बने।
3.रोग:- रोग तीसरा सीमांत कारक है जब भी जनसंख्या की अति हो जाती है तो कोई न कोई महामारी इस पर रोक लगा देती है।
4.स्थान:- स्थान की कमी के कारण भी जनसंख्या की अनियमित वृद्धि रुक जाती है।
5. प्राकृतिक विपदाऐं:- जंतुओं के क्षेत्र वातावरण में कोई भी बदलाव वादक ना बन जाता है जैसे सूखा, बाढ़ ,तूफान , अत्यधिक गर्मी व ठंड आदि।
(3) विभिन्नताएँ :- यह बात सार्वेधिक है की दो जीव कभी भी एक से नहीं हो सकते , एक ही माता-पिता की दो संताने कभी भी एकसी नहीं होती हैं। इसी को ही विभिन्नताए कहते हैं।
(4) योग्यतम की उत्तरजीविता :- जीवन संघर्ष में उन्हीं जीवधारियों को सफलता मिलती है जो योग्यतम होते हैं जो अपने वातावरण के उपयुक्त नहीं होते वे नष्ट हो जाते हैं।
(5) नई जातियों की उत्पत्ति:- डार्विन के मत अनुसार वातावरण के प्रति अनुकूलन से पैदा हुई विभिन्नताएँ एकत्रित होती जाती हैं जिससे एक जाति के जीव अपने पूर्वजों से भिन्न हो जाते हैं धीरे-धीरे यह विभिन्नता इतनी बढ़ जाती हैं कि नए जीव नई जातियों में बदल जाते हैं।
डार्विनवाद की आलोचनाएँ या हानियाँ :- सन् 1958 से 1959 में "ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज " अवधारणा एवं पुस्तक प्रकाशन के बाद सारे विश्व में तहलका मच गया था वैज्ञानिक गैर वैज्ञानिक एवं आमजन सभी इस सिद्धांत की चर्चा में मशगुल थे। डार्विनवाद इतना लोकप्रिय हुआ कि बाईबिल के बाद इनकी पुस्तक को दूसरा स्थान प्राप्त था फिर भी बाद में गहन अध्ययन एवं अवलोकन के बाद अनेक वैज्ञानिकों ने इसकी आलोचना की। प्रमुख आलोचनाएँ निम्न है-
(1) डार्विन ने जीवों में पैदा होने वाली विभिन्नताओं के स्त्रोत के बारे में कुछ नहीं कहा।
(2) डार्विनवाद की मूल अवधारणा यह है कि छोटी-छोटी विभिन्नताएँ पीढ़ी दर पीढ़ी प्रबल होती जाती हैं जिसके फलस्वरूप नहीं जातियाँ उत्पन्न होती हैं आज के अधिकांश वैज्ञानिक इस तथ्य से असहमत हैं उनके अनुसार छोटी-छोटी विभिन्नताओं से नई जातियाँ उत्पन्न नहीं हो सकती।
(3) डार्विनवाद अवशेषी अंगों की उपस्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं देता है।
(4) डार्विन ने भी अंगों के प्रयोग एवं अनुप्रयोग की विकास में उपयोगिता स्वीकार की जबकि वे लैमार्क के प्रबल आलोचक थे।
(5) प्राकृतिक वरणवाद की व्याख्या करते समय डार्विन ने कृत्रिम वरण की उपयोगिता को स्वीकार किया। परंतु, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
(6) डार्विनवाद जलीय जीवों से स्थलीय जीवों की उत्पत्ति की व्याख्या नहीं करता है।